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Pratidin Ek Kavita

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  • Us Din | Rupam Mishra
    उस दिन | रूपम मिश्र उस दिन कितने लोगों से मिली कितनी बातें , कितनी बहसें कींकितना कहा  ,कितना सुनासब ज़रूरी भी लगा था पर याद आते रहे थे बस वो पल जितनी देर के लिए तुमसे मिली विदा की बेला में हथेली पे धरे गये ओठ देह में लहर की तरह उठते रहे कदम बस तुम्हारी तरफ उठना चाहते थे और मैं उन्हें धकेलती उस दिन जाने कहाँ -कहाँ भटकती रही वे सारी जगहें मेरी नहीं थीं मेरी जगह मुझसे छूट गयी थीतो बचे हुए रेह से जीवन में क्या रंग भरतीहवा में जैसे राख ही राख उड़ रही थी जिसकी गर्द से मेरी साँसे भरती जा रही थींवहाँ वे भी थे जिनसे मैं अपना दुःख कह सकती थीलेकिन संकोच हुआ साथी वहाँ अपना दुख कहतेजहाँ जीवन का चयन ही दुःख था और वे हँसते-गाते उन्हें गले लगाते चले जा रहे थेजहाँ सुख के कितने दरवाज़े अपने ही हाथों से बंद किये गए थेजहाँ इस साल जानदारी में कितने उत्सव, ब्याह पड़ेंगे का हिसाब नहींकितने अन्याय हुएकितने बेघर हुएऔर कितने निर्दोष जेल गये के दंश को आत्मा में सहेजा जा रहा था फिर भी वियोग की मारी मेरी आत्मा कुछ न कुछ उनसे कह ही लेती पर वे मेरे अपने बंजर नहीं थे किमैं दुःख के बीज फेंकती वहाँ और कोई डाभ न उपजती पर कहाँ उगाते वो मेरे इस गुलाबी दुःख कोजहाँ की धरती पर शहतूती सपने बोये जाते हैंऔर फ़सल काटने का इंतज़ार वहाँ नहीं होता बस पीढ़ियों के हवाले दुःखों की सूची करके अपनी राह चलते जाना होता है ।
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    2:55
  • Manushya | Vimal Chandra Pandey
    मनुष्य - विमल चंद्र पाण्डेय मुझे किसी की मृत्यु की कामना से बचना हैचाहे वो कोई भी होचाहे मैं कितने भी क्रोध में होऊँऔर समय कितना भी बुरा होसामने वालामेरा कॉलर पकड़ कर गालियाँ देता हुआक्यों न कर रहा हो मेरी मृत्यु का एलानमुझे उसकी मृत्यु की कामना सेबचना हैयह समय मौतों के लिए मुफ़ीद हैमनुष्यों की अकाल मौत का कोलाज़ रचता हुआफिर भीमैं मरते हुए भी अपनी मनुष्यताबचाए रखना चाहूँगाये मेरा जवाब होगा कि मैं बचाए जाने लायक़ थाकि हम बचाए जाने लायक़ थे!
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    1:55
  • Apne Prem Ke Udveg Mein | Agyeya
    अपने प्रेम के उद्वेग में | अज्ञेय अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुमसे कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है।तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है।तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उससे एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है—कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझसे अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
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    1:58
  • Tum | Adnan Kafeel Darwesh
    तुम | अदनान कफ़ील दरवेशजब जुगनुओं से भर जाती थीदुआरे रखी खाटऔर अम्मा की सबसे लंबी कहानी भीख़त्म हो जाती थीउस वक़्त मैं आकाश की तरफ़ देखताऔर मुझे वहठीक जुगनुओं से भरी खाट लगताकितना सुंदर था बचपनजो झाड़ियों में चू करखो गयामैं धीरे-धीरे बड़ा हुआऔर जवान भीऔर तुम मुझे ऐसे मिलेजैसे बचपन की खोई गेंदमैंने तुम्हें ध्यान से देखामुझे अम्मा की याद आईऔर लंबी कहानियों कीऔर जुगनुओं से भरी खाट कीऔर मेरे पिछले सात जन्मों कीमैंने तुम्हें ध्यान से देखाऔर संसार आईने-सा झिलमिलाया कियाउस दिन मुझे महसूस हुआतुमसे सुंदरदरअसल इस धरती परकुछ भी नहीं था।
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    1:57
  • Prem Ke Prasthan | Anupam Singh
    प्रेम के प्रस्थान | अनुपम सिंह सुनो,एक दिन बन्द कमरे से निकलकर हम दोनोंपहाड़ों की ओर चलेंगेया फिर नदियों की ओरनदी के किनारे,जहाँ सरपतों के सफ़ेद फूल खिले हैं।या पहाड़ परजहाँ सफ़ेद बर्फ़ उज्ज्वल हँसी-सी जमी हैदरारों में और शिखरों परकाढेंगे एक दुसरे की पीठ पर रात का गाढ़ा फूलइस बार मैं नहींतुम मेरे बाजुओं पर रखना अपना सिरमैं तुम्हें दूँगी उत्तेजित करने वाला चुम्बनधीरे-धीरे पहाड़ की बर्फ़ पिघलाकर जब लौट रहे होंगे हमतब रेगिस्तानों तक पहुँच चुका होगा पानीसुनो,इस बार की अमावस्या में हमएक दूसरे की आँखों में देर तक देखेंगे अपना चेहराऔर इस कमरे से निकलकर खेतों की ओर चलेंगेहमें कोई नहीं देखेगा अंधेरी रात मेंहाथ पकड़कर दूर तक चलते हुएमैं धान के फूलों के बीच तुम्हें चूमँगीझिर-झिर बरसते पानी के साथफैल जाएगा हमारा तत्त्व खेतों मेंमुझे मेरे भीतरएक आदिम स्त्री की गंध आती है।और मैं तुम्हेंएक आदिम पुरुष की तरह पाना चाहती हूँफिर अगली के अगली बारहम पठारों की तरफ चलेंगेछोटी-छोटी गठीली वनस्पतियों के बीच गाएँगे कोई पुराना गीतजिसे मेरी और तुम्हारी दादी गाती थींखोजेंगे नष्ट होते बीजों को चींटों के बिलों मेंमैं भी गोड़ना चाहती हूँवहाँ की सख्त मिट्टीमैं भी चाहती हूँ लगानापठारी धरती पर एक पेड़सुनो,तुम इस बर लौटोतो हम अपने प्रेम के तरीक़े बदल देंगे।
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    3:43

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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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